धाम वही गंगा वही फिर क्यों है बेरस बनारस बात यहां बनारस की उस बेबसी की है।
धाम वही, गंगा वही फिर क्यों है बेरस बनारस बात यहां बनारस की उस बेबसी की है, जो इस प्राचीन नगरी में आधुनिकता के कदम पड़ने के साथ ही शुरू हो गई थी। वरना बनारसिया जिंदगी में मॉल, डीजल का धुआं छोड़ती नावें, विदेशी स्ट्रीट फूड का क्या काम भला! पुराने बनारस के खो जाने की खलिश इसे करीब से जानने वालों को कैसे तड़पाती है।
तब गंगा के किनारे जलते दीपकों की कतार के मध्य से निकलते हुए चुपचाप लहरों पर तैरती चांदनी के साथ घेरा बनाते दीयों को थिरकते देखता रहता था, जोे सैकड़ों छोटी-बड़ी नावों और बजड़ों से उतर-उतर नदी पर गढ़े जाते थे। मैं जब किसी छोटी सी नाव में, जो पतवार से छपक-छपक चला करती थी, उसमें बैठ कर नदी की चंचल किंतु शांत लहरों से कविताएं उठाता रहता था…। आह! कितना मधुर था सब। ऐसा लगता था कार्तिक पूर्णिमा का यह स्वर्णिम राका अभी के अभी गंगा में कूद पड़ेगा। वास्तव में ऐसी शांति और ऐसा सुरम्य वातावरण, केवल वह काशी ही दे सकती थी। परंतु इस बार बनारस की गंगा में नौका से यात्रा करना कोई सुखद अनुभव नहीं रहा।
सब नकली-सा लगा
कार्तिक पूर्णिमा की रात, देवताओं के संगीत और मैत्री की रात, गंगा पर चांदनी की सरगम की रात…और फिर इतना शोर, इतना प्रदषूण, इतना हंगामा और इतनी कृत्रिमता। उफ् ! इतना नकली सौंदर्य। मैंने कभी बनारस को इतना नकली होते नहीं देखा था। दरअसल बनारस हमेशा से एक नग्नता के साथ जुड़ा रहा है। …बनारस न केवल शरीर से नग्नता को पसंद करता रहा है, बल्कि यह नग्नता के आंतरिक स्वरूप को भी जानता है।
मतलब मन की नग्नता, भाषा की नग्नता, विचारों की नग्नता, भोजन की नग्नता… यहां तक की चरित्र भी यहां बड़े ही नग्न रहे हैं। इसीलिए यह भगवान शंकर की नगरी कही गई, क्योंकि भगवान शंकर दिगंबर हैं, उनके शरीर पर कोई वस्त्र नहीं है। उनके लिंग की पूजा सर्वत्र मान्य है। उनके चित्रित वर्णित स्वभाव में भी कहीं कोई आवरण नहीं मिलता। शिव परम निश्छल हैं। और ऐसे निश्छल प्रभु के धाम में इतना छल प्रपंच विगत कुछ दो दशकों से जो चल रहा है, वह एक बनारसी मन को पीड़ा पहुंचाता है।
वैसे ही लापरवाह रहा बनारस
कहते हैं माता पार्वती की पृथ्वी पर किसी दैहिक दैविक व भौतिक दुखों से मुक्त अर्थात् ‘अविमुक्त क्षेत्र’ की खोज ने शिव को विश्व प्रकाशिका काशी के चयन को उद्भूत किया। और भगवान ने इस नगरी को अपने त्रिशूल पर धारण करके इसे स्वर्ग से महत्वपूर्ण बना दिया। और उपहार में इसे पार्वती को प्रदान कर दिया, जो यहां अपने अनंत अन्न भंडार लिए माता अन्नपूर्णा के रूप में विराजमान हो गईं।
इस प्रकार काशी जो कि एक ‘अर्ध श्मशान’ है, वहां जीवन और मरण में एक मैत्री भाव का विस्तार हो जाता है, जिसके फलस्वरूप यहां पर चलता मुर्दा कुछ जागृत हो उठता है। इनमें क्रांति केवल गंगा की मौज की तरह उठती है और विलोप कर जाती है।
अत इतिहास में काशी क्रांति बीज की तरह तो मिलती है, क्रांतिकारी कभी नहीं मिलती। इसी कारण काशी अनेक सांस्कृतिक, राजनीतिक और धार्मिक झंझावातों के मध्य भी मानव इतिहास की सबसे पुरानी जीवित नगरी बनकर रह गई है। याद रखिए कि कोई देश धर्म का रक्षक नहीं हो सकता… केवल धार्मिक चित्त ही धर्म की रक्षा कर सकता है और धार्मिक चित्त का पहला व अंतिम लक्षण है प्रेमपूर्णता। और प्रेमी लापरवाह होते हैं, वैसे ही लापरवाह रहा बनारस!
परंतु विगत कुछ वर्षों में भारत ने एक नए प्रकार की वैश्विक आर्थिक नीति को स्वीकार कर लिया, जिसके अंतर्गत पूंजीवादी व्यवस्था को संपूर्ण विश्व में थोप देने का कुटिल प्रयोग विगत एक शताब्दी से अधिक समय से अमेरिका और उसके सहयोगी देशों द्वारा चलाया जा रहा था। इसी के परिणाम स्वरूप अमेरिका ने अनेक
भारतीय साधुओं, संतों से लेकर दार्शनिकों को चमकदार सम्मान और वैभव के बल पर खरीद लिया और उनका मतांतर कर दिया। परिणाम स्वरूप कभी समुद्र पार करने को मर्यादा उल्लंघन कहने वाले तथा अंग्रेजी को म्लेच्छ भाषा कहने वाला विशाल वैदिक ब्राह्मण और संत समाज आज खुद को अधिकाधिक अंग्रेजों से घिरा देखता है। उनको चेले-चेली के रूप में साथ रख खुद को ‘अंतरराष्ट्रीय संत’ कहलाने की होड़ मची हुई है। (इससे फूहड़ हास्यास्पद शब्द हिंदी में आज तक नहीं बना होगा, क्योंकि संत होना भगवान का होना है और भगवान का होना विश्व का होना है।
बात इतनी होती तो सह लेते
कृष्ण कीर्तन और मेडिटेशन के चोगों में सज संवरकर धार्मिक उपभोक्तावाद भारत में कोई पचास साल पहले प्रवेश करता है और धीरे-धीरे भारत के अनेक आश्रमों, संतों व मठों को अपवित्र करते हुए सनातन धर्म के सबसे सुंदर तीर्थों में एक ऋषिकेश, हरिद्वार व काशी समेत अनेक तीथों को भ्रष्ट करने में लग जाता है। सबसे पहले ऋषिकेश इसका आखेट बना। फिर शिव के केशों में छुपे शंभु प्रेमियों का यह स्थान देखते ही देखते फूहड़ आध्यात्मिक पर्यटन का क्षेत्र बन गया।
ओंकार नाद करती गंगा की उत्कल तरंगें अचानक ‘रिवर राफ्टिंग’के बेहूदे स्वरों से भरने लगीं। नीलकंठ की पहाड़ी पर कुहुकते मोरों को रौंद कर चढ़ने लगीं डीजल की बदबू उड़ाती टैक्सियां, जिनकी खिड़की से निकलती पीक और प्लास्टिक की गंदगी शिवालिक को कूड़ेखाने में बदलती जा रही है। कालांतर में अनेक व्यावसायिक प्रतिष्ठान (विशेषकर फूड और हॉस्पिटैलिटी बिजनेस) इसमें शामिल होते गए। फिर तो सरकारों की दृष्टियों में भी तीर्थ ‘कर उगाही’ के नए क्षेत्रों में परिवर्तित होते चले गए।
खैर! मैं कहां और ये बवाल कहां। मैं तो बनारस की सांस्कृतिक तबाही की कथा सुना रहा था। मेरे देखते-देखते बनारस ने अपना 80 प्रतिशत रस खो दिया है। वह रस जो वेदों से भी पुराना था। वह रस, जिसका ‘गालिब’ दीवाना था। वह रस, जिसमें जीवन का खजाना था। वह रस, जहां एक मौज भर मर जाना था। उस बनारस को ‘मेट्रो कल्चर’ की ऐसी हवा लगी किलोग बनारसी स्वाद (कचौड़ी, जलेबी, रबड़ी, समोसा आदि) भूलकर मोमो, चाउमीन,पास्ता, पिज्जा, अल्कोहल में डूबते चले गए।
नतीजा, अनेक पारंपरिक स्वाद काशी से मात्र दो दशकों में तिरोहित हो गए। बाकी बचा रहा तो पान। लेकिन अब वो भी अपने उस रंग में नहीं, जिसमें वो ‘पान बनारस वाला’ था। नए ‘विश्वनाथ धाम’ के साथ तो अब मेरे बचपन का ‘विश्वनाथ मंदिर’ किसी पुरातात्विक अवशेष-सा याद आता है। इसमें वह बनारसी ठाठ नहीं, जिसमें दुनिया को अचरज में डाल देने की शक्ति थी। अजीब सी शांति थी इस शहर में, कुछ वैसी जो श्मशान में होनी चाहिए। अजीब सी बेचैनी है अब इस शहर में, जो प्रेतों के आने पर घर में भर जाती है।
हां! बनारस में भी पूंजीवाद के प्रेत आ चुके हैं। और उनके बड़े-बड़े जबड़ों में फंस कर घुट रहा है इस बूढे़ शहर का दम। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति बेवजह बजते गाड़ी के हॉर्न के बीच सुन सकता है इस अल्हड़ शहर की कराह। देख सकता है गंगा के आंसू, जो खोजती है अपने घड़ियाल,कछुए, सूंस और गिद्ध। चलते-चलते कोई मंदिर हाथ पकड़ लेता है और घबरा के पूछता है ‘कब तक रहूंगा बचा, कुछ बता सकते हो?’
असली साधु तो कब के मर बिला गए।
भिखमंगे साधु वेश बनाए सड़कों पर इधर-उधर हाय- हेलो पुकारते मिल जाते हैं। दीवारों से हाथी, घोड़े, बनी ठनी, राजा, सिपाही और तोते मिट गए हैं, उनकी जगह है ‘ग्रैफिटी आर्ट’ के उबाऊ नमूने। देव दीपवाली पर अब नहीं चलती है चप्पू वाली नौकाएं, झूमती हवाओं का संगीत, पत्थर की सीढ़ियों से उठती हल्की हल्की शहनाई की तानें, भजन के स्वर और मिट्टी के बुझ-बुझ कर जलते मासूम दीपक। अब तो चलते है शोर करते इंजनों के झुंड, चीखते हैं जानलेवा आवाज में डीजे के बाजारू गीत। …मैं बड़े चाव से गंगा में कार्तिक पूर्णिमा का सौंदर्य निहारने गया था। बड़े अफसोस के साथ घर लौटा हूं। श्रद्धांजलि देते उस बनारस को, जिसमें मैं कभी पैदा हुआ था।
अपनी इच्छाशक्ति को हर दिन ऐसे बढ़ाइए।
जिन लोगों की इच्छाशक्ति मजबूत होती है, उनके रिश्ते अधिक सफल होते हैं। काम के परिणाम भी बेहतर होते हैं। वे अधिक स्वस्थ होते हैं। यहां तक कि लंबे समय तक जीवित रहते हैं। जब इच्छाशक्ति के इतने सारे फायदे हैं, तो इसे कौन नहीं बढ़ाना चाहेगा ?
आपकी इच्छाशक्ति आपके पेशेवर और व्यक्तिगत जीवन दोनों पर सकारात्मक असर डाल सकती है। इसके माध्यम से आप अपनी एकाग्रता कौशल में सुधार कर सकते हैं। अपने तनाव के स्तर को संभाल सकते हैं। अपना आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास बढ़ा सकते हैं। लेकिन यह तभी संभव है, जब आपकी इच्छाशक्ति मजबूत हो। इस मामले में अगर आप कमजोर हैं, तो कुछ अभ्यास से अपनी इच्छाशक्ति को बढ़ा सकते हैं, जैसे-
समय का प्रबंधन करना सीखिए
जब अपने कार्यों को नियंत्रित करने और योजना बनाने की बात आती है, तो समय प्रबंधन जरूरी है। एक निर्धारित कार्यक्रम के साथ, समझ पाएंगे कि आप अपने समय का बेहतर प्रबंधन कैसे कर सकते हैं। इसलिए रोजाना अपने महत्वपूर्ण कार्यों की सूची बनाएं और इसे पूरे दिन अपने सामने रखें। इससे आप अपनी इच्छाशक्ति को बनाए रखने के लिए प्रेरित रहेंगे।
अपने बारे में और जानिए
इच्छाशक्ति, आत्म-जागरूकता की मांग करती है। यदि आप में इसकी कमी है, तो समय आ गया है कि आप खुद को बेहतर तरीके से जानें। इससे आप अपने और अपनी कमजोरियों के बारे में और अधिक सीखेंगे। इससे आप सीख सकते हैं कि अपनी इच्छाशक्ति को कैसे बढ़ाया जाए। आपके लिए क्या मायने रखता है और आपके विकास के रास्ते में कौन सी मानसिक रुकावटें आ रही हैं, इस पर विचार करने के लिए अपने साथ कुछ समय बिताएं। संभावित समाधान लिखें और रोजाना पता लगाएं कि सकारात्मक बदलाव लाने के लिए आप कौन से कदम उठा सकते हैं। यह सब आपको अपनी इच्छाशक्ति के पीछे उद्देश्य की भावना देगा। जर्नलिंग के अभ्यास को रोजाना 15 मिनट देकर शुरुआत करें।
विचारों के बारे में जागरूक हों
क्या तनाव महसूस होने पर आप अलग तरह से व्यवहार करते हैं? जब आप खुद को दुनिया के शीर्ष पर महसूस कर रहे होते हैं, तो आप आमतौर पर कैसे होते हैं? इस तरह की स्थितियों में अपने बारे में जागरूक रहने से, आप आगे क्या करेंगे इसे नियंत्रित कर सकते हैं। इसका अभ्यास करने के लिए दिन में हर कुछ घंटों में, अपने आप से पूछें, ‘मुझे कैसा महसूस हो रहा है? यह आपको अपनी भावनाओं से जोड़े रखेगा। इस तरह प्रेरित रहने के लिए आपको अपने विचारों में बदलाव लाने की बेहतर इच्छाशक्ति मिलेगी।
जन्नत सा लगा गुलाबा
यहां और क्या कर सकते हैं।
● गुलाबा की ढलानें स्कीइंग के लिए बेहतर हैं। साथ ही आप यहां ट्रेकिंग भी कर सकते हैं। पैराग्लाइडिंग का भी लुत्फ यहां उठा सकते हैं।
● विंटर स्पोर्ट्स का रोमांच चाहिए, तो स्नोबोर्डिंग का मजा लें।
● आप घाटी और आसपास के पहाड़ों के मनोरम दृश्य को देखने के लिए गुलाबा व्यू प्वाइंट जा सकते हैं या फिर बर्फ से ढकी चोटियों के बीच स्थित भृगु झील देख सकते हैं।
● यह कैंपिंग और पिकनिक के लिए भी अच्छी जगह है।
कैसे जाएं, कब जाएं
गुलाबा का निकटतम हवाई अड्डा कुल्लू मनाली है, जो गुलाबा से करीब 50 किमी दूर स्थित है। वहीं यहां का निकटतम रेलवे स्टेशन जोगिंदर नगर है, जहां से गुलाबा की दूरी करीब 140 किलोमीटर है। यहां से आप बस या टैक्सी लेकर आगे जा सकते हैं। अगर आप विंटर स्पोर्ट्स का शौक रखते हैं, तो नवंबर से फरवरी के महीने में यहां जाएं।
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पंजाब सेंट्रल यूनिवर्सिटी (पीसीयू) में गैर शिक्षण सदस्यों के 36 पदों पर भर्ती।