जब चौखट के भीतर पांव रखते ही कुलजीत ने घूंघट उठाकर कमरे में झांका तब महसूस हुआ।
जब चौखट के भीतर पांव रखते ही कुलजीत ने घूंघट उठाकर कमरे में झांका तब महसूस हुआ जैसे दो वर्षों से मन में बने हुए कल्पनाओं के महल रेत की दीवारों की तरह गिरते चले जा रहे हों। कांपते हाथों से उसने दरवाजा बंद किया और सहमी-सहमी-सी खुली आंखों से कमरे को ताकने लगी। सामने अलमारी के ऊपर सरसों के तेल का दिया टिमटिमा रहा था। पास ही रेशमी रूमाल में लिपटे कुछ ग्रंथ रखे थे। एक ओर धूप सुलग रही थी। उससे नीचे फर्श पर एक मृगछाला और चांदी के पावों वाली छोटी चौकी रखी थी। कुलजीत की आंखें सुलगने-सी लगीं और बदन जैसे कांपने लगा। सूनी निगाह से एक बार फिर उसने देखा तो पहली वस्तुओं के सिवा दो बंद अलमारियां तथा छत से लटकता हुआ बिजली का बल्ब भी नजर आया।
उसके अंदर एक उमंग-सी उठी और बच्चों के से अंदाज में दरवाजे की ओर बार-बार झांकते हुए उसने स्विच दबा दिया।
सभी वस्तुएं दूधिया प्रकाश में नहा गईं, किंतु अगले ही क्षण उसने स्विच ऑफ कर दिया। क्षण भर में मानो रात छा गयी हो। दीये की रोशनी बहुत मद्धम जान पड़ी। समझ नहीं आया कि बिजली के होते हुए भी यह दीया क्यों जल रहा था। छाती में उठा एक गुबार-सा सिर की ओर चढ़ रहा जान पड़ा। खड़ी न रह सकी तो पलंग पर बैठ गई। उसने एक उमंग से मेहंदी रंगे अपने हाथों की तरफ देखा। सोने की चूड़ियों और गले में पहने हार को टटोला, तो ऐसा लगा जैसे उसे कोई जबरदस्ती डोली में से उठा कर जंगल में ले आया हो। कुलजीत की आंखें पथरा-सी गईं, अपनी ओढ़नी के छोर पर अपनी ही बनाई फूल-पत्तियों को ताकती रही।
दो वर्ष पूर्व जब कुलजीत की सगाई हुई थी, उसने अपने बापूजी के एक मित्र को बातें करते सुना था। वह इसी शहर का रहने वाला था। उसने कुलजीत के मंगेतर और उसके खानदान का जो चित्र कृष्णजीत के बापू के सामने पेश किया, वह पूरे का पूरा उसी तरह कुलजीत के मन पर अंकित था। दो वर्ष तक वह उसी चित्र को निहार-निहार कर बावरी-सी होती रही। अपने मंगेतर-सा सजीला जवान उसने कभी न तो देखा था, न ही सुना था। इतने सुंदर तथा सादे स्वभाव का वह शहरी लड़का था, जो शहर में कुलजीत को कभी भी नजर नहीं आया था। ऐसे प्रिय-मिलन की आशा कुलजीत के अल्हड़ मन में दो वर्ष तक चुपके-चुपके धड़कती रही थी। वह सत्रह वर्ष में ही यौवन की रानी बन गई, जैसे मिलन की आशा में उसका रंग-रूप निखर आया हो।
उस सुंदर शहर की खूबसूरत गगनचुंबी इमारतों के आकार-प्रकार मन में बनाती-बिगाड़ती रहती, जहां अपने बापू के साथ कभी-कभार जाया करती थी। खुले बाजार, शीशे की तरह चमचमाती सड़कें, सुंदर कपड़े पहने साइकिल सवार लड़कियां और गोरे-गोरे जवान लड़के…उसे सब कुछ बहुत भाता। उसका मन ऐसे शहर में बसने को कितना उतावला था! और आज वह उसी शहर के एक मकान के भीतर बैठी थी। उसने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि शहर में ऐसे मकान भी होते हैं, जहां बिजली के होते हुए भी सरसों के तेल के दीये जलते हों। कभी सोचा भी नहीं था कि शहरियों के कमरे भी उनके गांव के गुरुद्वारे की तरह सजाये हुए होते हैं।
कुलजीत पुतली की तरह चारपाई पर बैठी हुई थी।
उसकी सब मानसिक शक्तियां शून्य-सी हो चुकी थीं। यहां तक कि अब यह भी नहीं सोच सकती थी कि वह कहां बैठी है। बाहर से कुछ खटखट हुई तो वह उठ खड़ी हुई। ‘वे’ अंदर आए, तो कुलजीत ने लंबा घूंघट खींच लिया। वे मधुर स्वर में ‘शब्द’ गुनगुनाते हुए मृगछाला पर जा बैठे। कुलजीत वहीं खड़ी रही और घूंघट में से एक शर्मीली निगाह उधर डाली। इधर उसकी पीठ थी। उसको लगा जैसे उसकी सारी देह रक्तहीन-सी हो गयी हो। सिर के ऊपर सफेद दस्तार, सफेद कुरता और कलछरा, गले में रेशमी-रूमाल, पूर्ण-गुरुसिक्खों की वेशभूषा। काफी देर वे अंतर्ध्यान हुए शब्द उच्चारते रहे और वह ज्यों-को-त्यों वहीं खड़ी रही।
उनका छरहरा बदन और सफेद हाथ-पांव देखकर कुलजीत को अपने खोए चित्रों के अक्स फिर उभरते जान पडे़। जब वे आंखें मूंदे ही उठकर चौकी पर बैठे, तभी कुलजीत उनका चेहरा भी देख पाई। इतने सुंदर चेहरे की उसने तो कल्पना भी न की थी। छोटी-छोटी दाढ़ी, लंबी नाक, चौड़ा माथा और बड़ी-बड़ी आंखों में से चांद की चांदनी का सा कुछ झरता प्रतीत हो रहा था। कुलजीत के होंठों पर अपने आप ही एक भीनी-सी मुस्कान बिखर गई और सीने में मीठी-मीठी जलन-सी होने लगी। कितनी ही देर बाद उन्होंने आंखें खोलीं। उनमें कोई अजीब ही तेज था। कुलजीत उनमें झांक नहीं सकी। उसकी देह एक बार फिर बेजान-सी हो गई।
‘आप यहां आसन पर आइए, देवीजी!’ उनका गंभीर, परंतु कोमल स्वर उसने सुना। ‘शरमाइए नहीं! सतगुरुजी ने कहा है-‘एक ज्योति दो मूर्ति। आज सतगुरु की कृपा से दो पवित्र आत्माओं का मिलन हुआ है। यह शुभ दिन है। आइए आसन के ऊपर पधारिए।’
‘शरमाइए नहीं, अच्छी तरह बैठिए।’ वही आवाज उसने फिर सुनी। मीठी, पवित्र आवाज! कुलजीत मर्यादा से ऐसे बैठ गई, जैसे गांव के गुरुद्वारे में बैठा करती थी।
‘घूंघट उठा दीजिए, यह गुरु-मर्यादा नहीं है।’ उसने घूंघट उठा दिया।
‘श्री गुरु साहिबजी के चरणों में सीस झुका कर अपना जन्म सफल करो।’ उन्होंने सिर झुका कर हाथ जोड़ते हुए कहा। कुलजीत का सिर झुक गया। अब उन्होंने कुलजीत की तरफ देखा। पलकें झुकी-झुकी-सी, मोटी-मोटी आंखें, तीखे नक्श, पवित्र अंग…उनकी आत्मा किश्ती की तरह डगमगाने लगी। एक क्षण को तो उनकी चेतना मानो ‘भव-सागर’ का भय ही भुला बैठी। परंतु दूसरे ही क्षण उनके कंठ से एक गंभीर और भयभीत आवाज निकली, ‘गुरु-शब्दी एह मन छोड़िये’ (गुरुजी की आज्ञा से मन की वृत्ति ठीक दिशा में लगाइये) । उनकी आंखें मुंदती चली गईं और जब फिर से खुली तो शांत झील के ऊपर तैरती हुई नाव की भांति अडोल तथा शांत थीं।
‘हम भाग्यवान हैं देवीजी, जो आप जैसी पवित्र आत्मा हमारे पास है। किंतु आपके वस्त्र सिंहनियों-जैसे नहीं। यह हार, गहने आदि सभी मानसिक-क्लेश के चिन्ह हैं। उस अलमारी में सब वस्त्र रखे हैं, पहन लीजिए। गुर-मर्यादा अनुसार, पूर्ण-गुरसिक्ख किसी मलिन बुद्धि-संगनी के साथ विवाह नहीं रचा सकता। हमारे एवं आपके मां-बाप की मलिन-बुद्धि के कारण ही हमें बिना अमृतपान कराए आपके साथ ‘आनंदकारज’ करना पड़ा है। परंतु आपको पूर्ण-सिंहनी सजना चाहिए।
कुलजीत को उन वाक्यों की ठीक-ठीक समझ आ गई थी, जिनमें उसके लिए सिंहनी-जैसे वस्त्र धारण कर लेने की आज्ञा की गई थी। और किसी को बात की उसे समझ नहीं आई। वह चुपचाप उठकर पीछे वाली अलमारी की ओर चली गई। वे उधर पीठ किए, आंखें मूंदे, समाधि लगाए बैठे रहे। कपड़े-गहने उतार कर कुलजीत ने वस्त्र पहन लिए। वस्त्र सजाकर फिर से आसन पर आ बैठी। उन्होंने एक भरपूर निगाह कुलजीत पर डाली।
‘आपने जूड़ा नहीं बांधा, पर देखिए तो वस्त्रों में आप कितनी शोभनीय दीख पड़ती हैं।
धन्य हो सतगुरु!’ बहुत रसमय ढंग से उन्होंने कहा और आंखें मूंद कर फिर आसन जमा लिया। कुलजीत फिर उठी। चोटी खोलकर सिर पर जूड़ा बांधा और जब आसन की ओर बढ़ी, तब उसके पांव-जैसे किसी सांप ने जकड़ लिए। सारा बदन मानो अध-झुलसा हुआ-सा हो गया और वह बहुत मुश्किल से गिरने-पड़ने से बचती आसन पर आ बैठी।
‘धन्य हैं आप-जैसी महान सिंघनियां!’ उन्होंने समाधि भंग करके कहा, ‘आपका शरीर अब पवित्र है, पर जिह्वा तथा आत्मा पवित्र करने के लिए मेरे साथ शब्द उच्चारण कीजिए। आइए, हम यह अपनी पहली मिलन-बेला सतगुरुजी की पवित्र वाणी से सफल करें।’
वे मीठी-प्यारी ध्वनि में शब्द गायन करने लगे। एक तुक बोलकर वे चुप हो गए। उनकी आंखें मूंदी हुई थीं, परंतु कान कुलजीत की आवाज सुनने को उतावले हो रहे थे। बहुत देर तक कुलजीत के ओंठ न खुले; जबान मानो तालू से चिपक गई हो, परंतु फिर अपने-आप उसके भीतर से कोई कुछ बोल उठा। वह बोलती रही, परंतु उसके सारे अंग फिर शून्य हो गए। कुलजीत की दोनों आंखें बंद थीं और लंबी पलकों में से झरते हुए आंसू पीले पड़ चुके गालों पर से टूटे हुए तारों की तरह फिसलते, काली चुनरी के छोर में समा रहे थे। उनकी दोनों रस-मुग्ध आंखें कुलजीत की सुरीली आवाज की मिठास से और भिंचती जा रही थीं। शब्द की ध्वनि से सभी कुछ शांत-सा हो गया था।
‘आपने जूड़ा नहीं बांधा, पर देखिए तो वस्त्रों में आप कितनी शोभनीय दीख पड़ती हैं।
धन्य हो सतगुरु!’ बहुत रसमय ढंग से उन्होंने कहा और आंखें मूंद कर फिर आसन जमा लिया। कुलजीत फिर उठी। चोटी खोलकर सिर पर जूड़ा बांधा और जब आसन की ओर बढ़ी, तब उसके पांव-जैसे किसी सांप ने जकड़ लिए।
यह भी पढ़ें
धाम वही गंगा वही फिर क्यों है बेरस बनारस बात यहां बनारस की उस बेबसी की है।