क्या आपको भूलना आता है ? आपको आता हो या न आता हो, मुझे भूलना आता है।

क्या आपको भूलना आता है ? आपको आता हो या न आता हो, मुझे भूलना आता है।

यों कहिए कि यही मेरी खासियत है, यही मेरी ताकत है, यही मेरी कूवत है! जो मजा भूलने में है, वह याद रखने में नहीं। यदि इस फॉर्मूले में आपको एक प्रतिशत भी शंका की गुंजाइश हो, तो खुद आजमा कर देख लीजिए। आप मान जाएंगे कि भूलना एक जबरदस्त कला है और यह कला जिसे हासिल हो जाती है, उसे कलाकार कहा जा सकता है। कलाकार कई होते हैं, पर मैं इस कला का कीड़ा हूं। बस, फर्क इतना है कि कीड़ा बड़ी मंथर गति से चलता है, मैं इस विस्मयकारी विस्मरण पथ पर अत्यंत द्रुत गति से बढ़ता हूं ओलंपिक धावक की तरह। स्थिति यह है कि मेरी पत्नी मुझे पौ-फटते डांटना शुरू करती है।

दफ्तर के लिए छूट भागने तक अनवरत फटकारती रहती है और मैं हूं कि घर की चारदीवारी के बाहर कदम रखते ही आराम से सब कुछ भूल जाता है। बाजार से गुजरते वक्त बनिया, बजाज, मोदी, कोयले वाला, दूध वाला सब बारी-बारी से मेरी टोपी उछालते हैं, मैं उछलवाता जाता हूं और भूलता जाता हूं। दफ्तर में बॉस रंग दिखाते हैं,अकसर लाल-पीले होते हैं, गर्मागर्म झिड़कियां पिलाते हैं। मैं फूंक-फूंक कर, चुस्कियां ले-लेकर पी लेता हूं। पर, केबिन की लक्ष्मण-रेखा लांघते ही सारी स्मृतियों का सीताहरण हो जाता है। लफ्ज तो लफ्ज, कोमा, फुलस्टॉप तक याद नहीं रहता, झिड़कने का अंदाज तक याद नहीं रहता।

भूलने की महारत निरंतर अभ्यास के बाद हासिल की जाती है।

मैंने यह रियाज बचपन से ही किया है। सबक सीखता था, भुला देता था, फिर सीखता था, फिर भुला देता था। करते-करते अभ्यास इतना मजबूत और पक्का हो गया कि जब चाहा पढ़ा, किताब के सफे बंद किए और भूल गया। सब कुछ गुल, सब कुछ सफा। बड़ी मेहनत और मशक्कत से यह कला हासिल की है मैंने! बेशक, अपनी जिंदगी का काफी कीमती वक्त आप याद रख-रख कर बर्बाद कर चुके हैं, लेकिन अभी भी देर आयद, दुरुस्त आयद। अंगरेज लोग कहा करते थे कि बिल्कुल न करने से तो देर सबेर करना बेहतर है। आपने भले देर कर दी, पर अभी कुछ नहीं बिगड़ा। अपने इष्टदेव का नाम लेकर अभी भी तुरंत इस अभ्यास का श्रीगणेश कर दीजिए।

मुझे तो आश्चर्य होता है कि बिना भुलाए आप जी कैसे रहे हैं? क्या याद रख-रख कर आपका जीना मुहाल नहीं हुआ? अब आप ही बताइए, बीवी की बेशुमार डांट-फटकार, कर्जदारों की वजनदार धमकियां और मालिकों की थोक बंद झिड़कियां याद रखकर क्या कभी कोई साधारण आदमी जिंदा रह सकता है?

जिंदा रहने का एक ही राज है-भूलते जाओ। भूलना ही लंबी उमर का इकलौता गुर है, जिसका मूल श्रेय उन सारे गुरु घंटालों को है, जो बचपन से ही बच्चे के सिर में इतना कुछ ठूंस-ठूंस कर भरने की कोशिश करते हैं कि उस बेचारे के पास भूलने के अलावा दूसरा कोई चारा ही नहीं।

एक बात बता दूं? यदि मुझे भूलने की महारत नहीं हासिल हुई होती।

तो मैंने आज तक अपनी बीवी के लिए दस हजार साड़ियां, एक हजार कंगन, पांच सौ चंद्रहार, दो सौ कर्णफूल, रंग-बिरंगी लिपस्टिक और बेशुमार सौंदर्य प्रसाधन भेंट चढ़ा दिए होते। बताइए, क्या मेरा बाप वसीयत में कोई सोने की खान मेरे नाम लिख गया था या कोई मिनिस्टर की कुर्सी बख्श गया था, जो मैं ये सारी बेहिसाब फरमाइशें पूरी करता रहता? आज तक जितनी चीजें और नाचीजें दोस्तों और साथियों से उधार ली हैं, उनको अगर याद करूं या उनकी फेहरिस्त बनाऊं, तो सारी जिंदगी उस याददाश्ती और फेहरिस्तबाजी के चक्कर में ही फुर्र हो जाएगी। फिर उन उधारित वस्तुओं का सदुपयोग कब करूंगा? तो बस, अपने राम तो इस उधेड़-बुन की रामायण से दूर ही रहते हैं। एक भूल, सौ नियामत। हजार भूल-लाख नियामत! भूलते जाओ तो बस जिंदगी में नियामत ही नियामत है। जितना याद रखो, बस कयामत ही कयामत है। इस कयामत को जितना टाल सको टालो, यही खुशहाली की चाभी है। इस चाभी की दूसरी कोई ‘डुप्लीकेट’ नहीं।

मेरी बीवी को जब मुझे कोई खास बात खास रूप से याद रखवानी होती है, तो वह मेरे रूमाल में गांठ बांध देती है। याददाश्ती का यह दकियानूसी इलाज है। पर, मैं भी कच्चा खिलाड़ी नहीं। गांठें देखना याद ही नहीं रखता। कभी भूल से देख भी लेता हूं, तो गांठ की बात ही भुला देता हूं। और मैं कर भी क्या सकता हूं? एक गांठ पच्चीस-पचास रुपये से तो कम की होती नहीं। भूलने का आलम ही और है। भूलने वाला शख्स सदा अलमस्ती और बेखुदी में खोया रहता है। वैसी अलमस्ती और बेखुदी तो कबीर को भी नसीब नहीं हुई।

जिंदगी में कितने लोग, कितनी बार छोटे-मोटे अहसान हम पर चाहे-अनचाहे थोपते ही रहते हैं।

अब उन सबको याद रख-रखकर अहसानों की गठरियों का बोझ अपने सिर पर हम कहां और क्यों ढोते रहें? क्या आदमी गधा है, जो जिंदगी भर बोझ ही ढोता फिरे? बंगलादेशी अंदाज में अहसान को दिल-ओ-दिमाग से शांति-कबूतरों की तरह फुर्र से उड़ा देने में ही भलाई है। देखिए, फिर दिल और दिमाग कितने हल्के-हल्के नजर आते हैं चुटकलों की तरह हल्के-फुल्के। भूलना, वह लक्कड़-हजम चूरण है, जो दुत्कार, फटकार, बदनामी, बेइज्जती, झिड़की, धमकी-जैसे गरिष्ठ से गरिष्ठ व्यंजनों की बेहिसाब ठूंस को भी साबूदाने की तरह गलाता जाता है, पचाता जाता है। मन पर मलाल की धुंधली से धुंधली रेखा भी नहीं जमने देता।

पेट पर दर्द का छोटे से छोटा बल भी नहीं पड़ने देता। एक दिन मेरे पड़ोसी मेरी इस अलमस्त फितरत से कुढ़कर मुझसे तुम-तुम हम-हम करने लगे। पिछले दो-चार वर्षों में मैंने सिर्फ कोई पचास-साठ बार कभी किताब या छाता या कैंची या टाई उनसे मांगी होगी। वे सब बड़ी बेशरमी से एक-एक कर गिनवाने लगे। राम जाने लोग इतनी पुरानी-पुरानी और छोटी-छोटी बेतुकी बातें याद कैसे रखते हैं? स्वयंवर सभा में परशुराम के धुआंधार भाषण की तरह वे झाड़ते रहे और मैं लक्ष्मण की मंद-मंद मुस्कान की तरह बिखरता रहा। वे खूब झड़े, मैं खूब बिखरा। वे थक कर चकनाचूर हो गए, मेरा कुछ नहीं बिगड़ा। वे तंग आकर मेरी मां-बहन को याद करने पर उतर आए, मैं भूलने पर ही उतारू रहा। वे कांटों की तरह गड़ते रहे, मैं सुनता रहा और भूलता रहा।

इस भूल-भुलैया की बदौलत ही उस गर्मागर्म माहौल से मैं भक्त प्रह्लाद की तरह बेदाग बच निकला।

सुना है, उस दुर्घटना से मेरे पड़ोसी महाशय दस दिन तक चादर की तरह बिछे रहे। याद रखने के लाइलाज रोग ने आखिर उन्हें खाट पकड़वाकर ही चैन लिया। यदि बचपन से ही मेरी तरह भूलने का अभ्यास कर लिया होता, तो क्यों यह आफत मोल लेते?

अब मुझे ही देखिए। उस दिन जो कुछ ऊंची-नीची सुननी पड़ी, सब पी गया प्यासे की तरह। और इस भूलने की लाजवाब प्रैक्टिस की असीम कृपा से आज भी पड़ोसीजी के पास जब जरूरत समझता हूं, पहुंच जाता हूं। जरूरतमंद आदमी का भुलक्कड़ होना अनिवार्य है।

यदि मुझे भूलने की महारत नहीं हासिल हुई होती, तो मैंने आज तक अपनी बीवी के लिए दस हजार साड़ियां, एक हजार कंगन, पांच सौ चंद्रहार, दो सौ कर्णफूल, रंग-बिरंगी लिपस्टिक और बेशुमार सौंदर्य प्रसाधन भेंट चढ़ा दिए होते।

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