मार्च 1944 में जापान ने भारत पर हमला किया। इस बारे में खबरों के प्रकाशन पर भारत सरकार ने पाबंदी लगा दी।
दूसरे महायुद्ध के अंत में मित्र-सेनाओं के सर्वोच्च सेनापति जनरल आइजनहावर ने एक पत्रकार-वार्ता आयोजित कर खबर दी कि जर्मनी ने आत्म समर्पण कर दिया है। साथ ही खबर 48 घंटे तक न छपने की रोक लगा दी। लेकिन एसोसिएटेड प्रेस के एडवर्ड केनेडी ने खबर तुरंत ही अपने लंदन-कार्यालय भेज दी और वहां से दुनिया भर में फैल गई।
संवाददाता की खुराफात पहले महायुद्ध के शुरू के दिनों में मित्र-राष्ट्रों की हालत नाजुक थी। अनुमानों का बाजार गर्म था कि पेरिस मुख्यालय की सर्वोच्च कमान में फेरबदल हो रहा है। इस बारे में खबरों पर कड़ी पाबंदी थी। फिर भी ‘न्यूयार्क हेराल्ड ट्रिब्यून’ के पेरिस संवाददाता ने एक दिन अपने समाचार-संपादक के घर के पते पर तार भेज दिया कि प्रबंधक हटा दिए गए।
उनका काम स्थानीय सहायक संभाल रहे हैं। अगली सुबह न्यूयार्क में पूरी पृष्ठभूमि के साथ विस्तार से खबर छप गई कि मित्र-सेनाओं के प्रमुख सेनापति मार्शल हेग को हटाकर उनकी जगह उनके फ्रांसीसी सहायक मार्शल फूश को नियुक्त किया गया है। पूरा समाचार अमेरिकी पत्रिका ‘हारपर’ में प्रकाशित एक लेख से तैयार कर लिया गया था, जिसमें काफी विश्लेषण के बाद हेग की जगह फूश के आने का अनुमान लगाया गया था। ‘हेराल्ड ट्रिब्यून’ ने ‘स्कूप’ देने के मामले में बहुत बड़ा हाथ मारा था।
भारत में लड़ाई के शुरू के दिनों में मेरा सामना ऐसी सेंसरशिप से हुआ, जो सरकारी काम में अपने निजी रागद्वेष से काम ले रही थी। एक संवाद लंदन भेज रहा था, जिसमें स्पेनी गृहयुद्ध में भेजी गई अंतरराष्ट्रीय सेना के प्रमुख और ब्रिटिश कॉमनवेल्थ पार्टी के सदस्य टॉम विट्रिंघम का नाम था। बंबई के प्रतिक्रियावादी सेंसर ने इस नाम पर आपत्ति करते हुए कहा कि यह तो कुख्यात आदमी है। मुझे कहना पड़ा कि ऐसे ही कुख्यात तो सर स्टैफर्ड क्रिस्प व हमारे दोस्त स्टालिन भी हैं।
बाद में वह समाचार मैंने नई दिल्ली के प्रमुख सेंसर से मंजूर करा लिया। एक समाचार में मैंने नागाओं के भोलेपन की शाब्दिक तसवीर खींचते हुए नागा-लड़ाकों के जहर-बुझे बरछों का जिक्र किया। सेंसर ने जहर-बुझे शब्द काट दिया, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार लड़ाई में जहर के इस्तेमाल पर पाबंदी है। मैंने समझाया कि इसका मौजूदा लड़ाई से ताल्लुक नहीं है व नागा तो लड़ाई में शामिल ही नहीं हैं। फिर सेंसर मान गया।
तू डाल-डाल, मैं पात-पात इंफाल पर जापान का घेरा शुरू होते वक्त रोक लगाई गई।
कि ‘घेराबंदी’ शब्द इस्तेमाल न किया जाए। मैंने हर तरकीब से काम लिया। इंफाल घाटी की भूरचना का वर्णन करते हुए स्पष्ट किया कि जमीन के रास्ते इंफाल में घुसने के केवल तीन दरवाजे हैं और इन तीनों से जापानी सेना की दूरी लगातार कम होती जा रही है। ‘घेराबंदी’ शब्द की तुलना में कहीं ज्यादा जोर से कान खड़े करने वाली इस कहानी को सेंसर ने मंजूरी दे दी और वह छपी, तो उसी रात कलकत्ता के स्टॉक-मार्केट में धमाका हो गया।
इसी दौर में एक बार जापानी रेडियो ने खबर दी कि सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज कोहिमा पहुंच गई है, उसने भारत की धरती पर राष्ट्रीय झंडा गाड़ दिया है और इलाके में आजाद हिंद सरकार कायम हो गई है। उसी दरम्यान ब्रिटिश सेना के जासूसों ने बताया कि आजाद हिंद फौज की महिला पलटन रानी झांसी रेजिमेंट कोहिमा आ पहुंची हैं।
मैंने यह समाचार सेंसर में पेश किया तो सेंसर ने उसे कूड़ेदान के हवाले कर दिया। बाद में मालूम पड़ा कि आजाद हिंद फौज के सिख जवान सवेरे नहाने के बाद अपने लंबे बाल धूप में सुखा रहे थे। आजादी के बाद भारत में सेंसर का और भी कठमुल्ला रूप देखने को मिला। 1965 में पाकिस्तान से हुई लड़ाई पर, मैंने एक पुस्तक लिखी, जिसमें डिवीजनों और उनके सेनापतियों के नाम भी दे दिए।
सैनिक जासूसी के प्रमुख मेजर-जनरल बत्रा ने वे नाम इस आधार पर काट दिए कि दुश्मन को पता चल जाएगा। मजा यह है कि बत्रा साहब अच्छी तरह जानते थे कि इन सबका पूरा ब्योरा पाकिस्तानी सेना के पास पहले से मौजूद था। लकीर का फकीर सेंसर इस तरह अनजाने ही दुश्मन का मददगार बन जाता है।
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क्या आपको भूलना आता है ? आपको आता हो या न आता हो, मुझे भूलना आता है।